एक बाल्टी शर्म से नहा गया

पहाड़ बचपन से लुभाते रहे। मझौले शहर का हूं। द‌िल्ली आया और कलमघ‌िस्सू पत्रकार बन गया। कुछ साथी पहाड़ के थे। उनसे अच्छी दोस्ती हो गई। एक अखबार में काम करता था। अखबार बंद हुआ । हम सभी सड़क पर आ गए। पूरा वक्त था। मेरे साथ काम करने वाले द‌िनेश बुड़ाकोटी घर लौटने की तैयारी में थे।

हमने सोचा मौका अच्छा है। उनके गांव ही चलते हैं। अन‌िल बलूनी (कभी सुंदर स‌िंह भंडारी के पीए, उत्तराखंड में राज्यमंत्री दरजाधारी और अब भाजपा के प्रवक्ता ) भी साथ हो ल‌िए। अन‌िल पहाड़ी हैं लेक‌िन घर द‌िल्ली में है। हम सब द‌िल्ली से ऋष‌िकेश बस से न‌िकले। वहां काली कमली ट्रस्ट में दो द‌िन रहे। गंगा के क‌िनारे पसरी रेत पर घंटों लोटे। द‌िल्ली की धूल-गंदगी भरे फेफड़े तरोताजा हो गए। खूब नहाए। अघा गए। फ‌िर द‌िनेश के घर जाने के ल‌िए कोटद्वार के ल‌िए बस पकड़ी। वहां से जीप।

लैसडौन से पहले फरसूला में उनका घर था। चीड़ के जंगलों से घ‌िरा छोटा सा, चंद घरों का प्यारा गांव। हमारे गांव में पांच हजार घर थे। उसका तो एक टोला भी इससे बड़ा था। लेक‌िन अपने गांव पर कुदरत ने हुस्न की कोई नेमत नहीं लुटाई थी। घर तक पहुंचे तो शाम हो चली थी। ब‌िजली नहीं थी। द‌िनेश पहले से ही बता चुके थे इसल‌िए मानस‌िक रूप से तैयार थे। लालटेन की रोशनी में खाना खाया।

खाना शुद्ध पहाड़ी था। भूख कह‌िए या खाने की लज्जत अमूमन तीन रोट‌ियां खाने वाला मैं कम से कम छह रोटी खा गया। एक बार खाट पर पड़े तो खट से न‌िद्रा देवी की गोद में जा बैठे। आंख खुली तो महानगरीय आदतों के ह‌िसाब से साढ़े नौ बज चुके थे। द‌िनेश शायद तड़के ही उठ चुके थे। चाय पी। घर में शौचालय नहीं था। द‌िनेश बोले द‌िशा मैदान के ल‌िए थोड़ी दूर जाना होगा।

अम्मा बताती हैं क‌ि जब 1957 में उनकी शादी हुई थी तब हमारे बाबा ने गांव में पहला फ्लश शौचालय बनवाया था। लोगबाग उसे देखने आते मानों कोई अजूबा हो। थोड़ा असहज लगा लेक‌िन चल द‌िए। ऊंचे-नीचे पहाड़ी रास्ते। पसीना छूट गया। सांस धौकनी बन गई। द‌िनेश के ह‌िसाब वह जंगल घर के बहुत नजदीक था। बहरहाल हम न‌िपटे और घर पहुंचकर दातुन-कुल्ला क‌िया।

नाश्ता करने के बाद द‌िनेश ने कहा क‌ि नहा-धो लीज‌िए। खाना खाकर घूमने चलेंगे। खुले में नहाए। बाहर मौसम ठंडा था मगर धूप थी। एक-एक करके द‌िनेश बाल्ट‌ियां लाते रहे। हम नहाते रहे। बलूनी ने कहा अतुल बस करो। यहां सप्लाई का पानी नहीं है। मुझे झटका लगा। द‌िनेश से पूछा पानी कहां से आता है? द‌िनेश बोले भाई साहब पहले खाना खाओ फ‌िर आपको ले चलेंगे जहां से पानी आता है। खाना खाया और कुछ देर बाद घूमने न‌िकल गए।

ऊंचे-नीचे रास्ते। चीड़ के सूख पीरुल पांवों के नीचे आ रहे थे। जबरदस्त फ‌िसलन थी। तकरीबन दो क‌िमी का सफर क‌िया तो वह झरना आया जहां से घर में पानी आता था। रास्ते की मशक्कत देखकर ही अहसास हो गया क‌ि यहां घरों में पानी पहुंचाना क‌ितना मुश्क‌िल है। द‌िनेश से पूछा आख‌िर इतनी दूर से पानी लाता कौन है। जवाब म‌िला घर की औरतें। बूढ़ी मां और उनकी चंद महीने की ब्याहता पत्नी।

सुबह घर तीन बाल्टी से नहाया था। उनकी बातें सुनकर लगा क‌ि एक बाल्टी शर्म से नहा गया हूं। अपने घर की मह‌िलाओं के बारे कभी कल्पना भी नहीं की थी वे इस तरह पानी भरकर ला सकती हैं। द‌िनेश बोले भाई साहब, यहां तो सभी के घरों में औरते ही सारा काम करती हैं। चारा-पत्ती, खेती। पहाड़ी औरतों का जीवन संघर्ष देखकर नतमस्तक हो गया। तीन द‌िन रहा। हर रोज झरने पर ही जाकर नहाया। जब लौटा तो पहाड़ी जीवन की तपश्चर्या को प्रणाम करके।

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